मंगलवार, 17 जून 2008

ये कैसा नारी विमर्श ?

ये कैसा नारी विमर्श

रोज़ सुन रही हूँ ,पढ रही हूँ देख भी रही हूँ
छोटे-बडे परदे पर चल रही,चलती जा रही
अंतहीन ,अर्थहीन सभ्यों की निरर्थक , झेलू बहस
जो खींच-तान कर बना दी जाती है देह-विमर्श
उघडे बदन और रिसते लहू-लुहान ज़ख्मों की
बेहयाई से जुगाली करता-कराता ये समाज
बस इतना भर ही!

क्यों तुम मुझे और मेरे मन को भी कभी छू नहीं लेती
पर लगता रहा ये तो व्यथा-कथा भर ही तो है
परदे पर सवाक-अवाक चलती-फिरती परछाई ही तो है
कभी-कभार आँखें भी भर आती हैं तो क्या हुआ?
अनायास ओह! से ज़्यादा कह भी नहीं पाती कई बार
मन को लगाम लगानी पडती है ‘ ऐसा होता ही रहता है’
बस इतना भर ही!

क्यों तुम मुझे और मेरे मन को भी कभी छू नहीं लेती
क्यों मुझे नारी जीवन की व्यथा-कथा नहीं सालती ?
क्यों मैं अपने को किनारे बैठा हुआ भी नहीं लगती ?
क्यों मैं डूबते हुओं को तमाशबीन भी नहीं लगती ?
क्यों इतनी सारी दुर्घटनाएँ अब घटना भी नहीं लगती ?
क्योंकर हर ओर चर्चा होती है मासूम के पल-छिन की
बस इतना भर ही!

मज़े से चटखारे ले-लेकर प्रश्नों के तीरों से घायल करते
मिर्च मसालों में लपेट कर किसी निष्कर्ष पर पहुँचते
फिर- फिर दोहराते दिखाते उन काले कारनामों को
पर चेहरा ढँक कर गुनाहगार के धुँधलाते बेगुनाह अक़्स
बेबस अचानक पकडे गए जानवर से मासूम दिखते-लगते
बस इतना भर ही!

ये आत्म स्वीकृति है हमारी तो भी क्या मज़ा है?
अभी भी हम सब रस लेकर ही परदे बदल देते हैं
शायद अपने आप को उस जगह न पाने की खुशी में
एक राहत की साँस लेकर पहुँचते हैं अगले मुद्दे पर
क्योंकि देह विमर्श अभी भी देह से परे नहीं ले जा रहा
चोटी -घाटी,खाई -गहराई की नाप –जोख करा रहा
बस इतना भर ही!

मैं सोफे पर बैठी , बिस्तर पर लेटी अक्सर गुनगुनी धूप में
कुछ कुछ खाती-पीती –बतियाती –अलसाती चकित सी
पढती –देखती –गुनती रहती हूँ सब कुछ विस्मय भाव से
अरे! क्या कोई ऐसा खुला भी लिख पाता है आजकल
ओह! क्या इतना सह कर भी जी पाता है आजकल
बस इतना भर ही! नहीं

है मेरे आश्चर्य-विस्मय की सीमा का और छोर
अरे!गिद्धों-खूँखारों से घर में कैसे बच जाती हैं ये नारियाँ
वैसे बचा भी क्या रहता है चलती –फिरती लाशों में
तब भी गिरने-उठने ,लडने-और पैने नाखूनों से नोचने
जीते जाने ,जगह बनाने मुट्ठी भींचने से नहीं चूकती
एक उजली किरन की आस में, सूरज को आँखों में समोती
अभी तो बस इतना भर ही!

(नारी विमर्श से क्षमा याचना सहित एक नारी का आत्मालाप )
वशिनी शर्मा , 2007


2 टिप्‍पणियां:

beena ने कहा…

very excellent

janki jethwani ने कहा…

जब तक नारी अपने को सबला नही मानेगी ,अपनी शक्ति को नहीं जानेगी,पुरुस के हाथों की कठपुतली बनी रहेगी।